क्षमा करें प्रेमचंद

From the desk of executive editor/Nishant karpatne

31 जुलाई : प्रेमचंद जयंती, श्री रामबचन राय के फेसबुक वाल से

                  

वह प्रेमचंद का जन्म-शताब्दी वर्ष था। देश भर में जन्म-शती के आयोजन हो रहे थे। एक आमंत्रण-पत्र कलकत्ता से आया था। कलकत्ता के उपनगर हाबड़ा में यह आयोजन हो रहा था। हिंदी और बांग्ला के लेखकों और साहित्य प्रेमियों की ओर से यह आयोजन था। मैंने कॉफी हाउस में पत्रकार और लेखक सूर्यनारायण चौधरी से चर्चा की। उन्होंने कहा चलना चाहिए। तब सुरेन्द्र प्रताप सिंह ‘धर्मयुग’ छोड़ कर बम्बई से कलकत्ता आ गए थे और ‘रविवार’ साप्ताहिक का संपादन कर रहे थे। राजकिशोर जी उनके सहयोगी थे। दोनों से मिलने का लोभ भी मन में था। फिर शरतचंद्र की धरती का एक अलग आकर्षण मन में था, जहाँ उन्होंने अपनी अधिकांश रचनाओं का सृजन किया था। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में वे हाबड़ा जिला कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी थे। फणीश्वरनाथ रेणु के किशोर मन पर उनका इतना प्रभाव था कि एक बार घर से भाग कर वे कलकत्ता गए और हाबड़ा की गलियों में शरत बाबू का घर ढूंढते रहे। एक भद्र बूढ़े बंगाली सज्जन से उनका घर पूछने पर डाँट भी मिली कि बर्बाद हो जाओगे ; अभी ठीक से मूँछ-दाढ़ी भी नहीं निकली और शरतचंद्र का दीवाना बन गए हो।
खैर, इन सारी बातों के अलावा प्रेमचंद के शताब्दी-समारोह में शामिल होने का अपना आकर्षण था। शरतचंद्र की धरती पर प्रेमचंद पर आयोजन। दानापुर-हाबड़ा ट्रेन का टिकट हमलोगों ने ले लिया। आयोजकों को आने की सूचना भेज दी। दो दिनों का आयोजन था। एक दिन पहले हमलोग गए कि मित्रों से मिलना-जुलना और घूमना-फिरना भी हो जाएगा। ट्रेन सुबह हाबड़ा स्टेशन पहुँची। हम दोनों प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर आयोजन के स्वयंसेवकों का इंतज़ार कर रहे थे कि वे हमें गंतव्य-स्थल तक ले जाते। तभी कर्पूरी ठाकुर जी पर नजर पड़ी। वे भी उसी ट्रेन से उतरकर किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुख्यमंत्री के पद से कुछ ही महीने पहले वे हटे थे। हमने जाकर प्राणम किया तो वे चकित हो गए कि आपलोग यहाँ ? और इसी ट्रेन से ? हमने बताया कि प्रेमचंद की शताब्दी पर एक आयोजन है, उसी में जाना है। फिर हमलोग अपने-अपने गंतव्य की ओर निकल गए।
दोपहर के भोजन के बाद हमलोग ‘रविवार’ कार्यालय गए और एस. पी. सिंह (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) से मिले। कुछ देर तक बातचीत होती रही। फिर हम लौट आये। जहाँ लेखकों को ठहराया गया था, समारोह-स्थल उसके पास ही था। इसलिए आने-जाने में कोई असुविधा नहीं थी। नये-पुराने लेखकों का अच्छा जमावड़ा था। पुरानी पीढ़ी के हंसराज रहबर भी आये थे। उनके और महाश्वेता देवी के उद्घाटन वक्तव्य से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। फिर दो दिनों तक अलग-अलग सत्रों में प्रेमचंद के साहित्य के विभिन्न पक्षों पर चर्चा होती रही। इस आयोजन में बांग्ला और हिंदी के वामपंथी लेखकों की उपस्थिति ज्यादा थी। हंसराज-रहबर तो स्वतंत्रता-संग्राम के क्रांतिकारी समूह के सदस्य रहे जो कट्टर मार्क्सवादी थे और जिन्होंने ‘गाँधीवाद की शव परीक्षा’ लिखी। कथाकार काशीनाथ सिंह थे, मधुकर सिंह थे, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर थे, डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र थे, हिंदी और बांग्ला के प्रो. इंद्रनाथ चौधरी थे, राजकिशोर जी और डॉ. शम्भूनाथ तो आयोजन समिति के सदस्य ही थे। दो दिनों तक प्रेमचंद को केंद्र में रख कर साहित्य समाज और राजनीति के सवालों को लेकर तीखी बहस और चर्चा होती रही जैसी अपेक्षा थी।
लेकिन आयोजन के पहले दिन सबेरे एक अप्रत्याशित घटना हो गयी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी और अफसोस कि वह बहस के दायरे से बाहर ही रही। हाबड़ा का वह इलाका जहाँ आयोजन स्थल और विश्राम-स्थल था, मुख्य सड़क से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर था। एक चौड़ी गली के रास्ते वहाँ पहुँचा जा सकता था। सुबह सात-आठ लेखकों का एक समूह टहलने निकला था और लौट कर सड़क के किनारे गली के मोड़ पर चाय पीने लगा। वह कारोबारी इलाका था जहाँ रिक्शा, ठेला, और बैलगाड़ी चलाने वाले काम का इंतज़ार करते थे और वहीं चाय-नाश्ता भी करते थे। जिस दुकान पर लेखक लोग चाय पी रहे थे, वहाँ दो-तीन हाथ गाड़ियाँ लगी थीं, जिस पर मजदूर सामान के गट्ठर और बोरियाँ ढोते थे। उस समय वो भी बगल की दुकान पर चाय-नाश्ता कर रहे थे। एक हाथ-गाड़ी के पीछे बैठ कर एक लेखक महोदय चाय पी रहे थे और मित्रों से गप्प में उलझे थे। तभी वह गाड़ीवान आया और गाड़ी का अगला हिस्सा ( जुआ) पकड़ कर कहीं जाने के लिए खड़ा किया। उसे लगा होगा कि गाड़ी हिलने पर बैठे हुए सज्जन खुद उतर जाएंगे। लेकिन लेखक महोदय के हाथ से चाय छलक गयी और कुछ छींटे उनके कपड़े पर गिर गये। वे आग बबूला हो उठे और बड़े कुल्हड़ की गर्म चाय उसके चेहरे पर फेंक दी। वह तड़प उठा। लोग दौड़े। एक मजदूर ने अपना गमछा भिंगो कर उसका चेहरा पोछा। मामला तूल न पकड़े इससे पहले लेखक-समूह वहाँ से निकल गया।
समारोह के दूसरे दिन लेखकों के बीच के कुछ लोग सुबह की सैर से लौट रहे थे। देखा कल जहाँ वाकया हुआ था, वहाँ भीड़ जमा है। आज क्या हो गया ? नजदीक जाकर पूछा तो मालूम हुआ एक मजदूर अपनी हाथ-गाड़ी पर मरा पड़ा है। तो क्या यह वही है जिसके मुँह पर गर्म चाय फेंक दी गयी ? वह गरीब यह अपमान नहीं सह पाया और जहर खाकर जान दे दी। रिक्शा, ठेला, हाथ गाड़ी वाले खोमचा वाले, चाय वाले सभी हैरान! यह हत्या है या आत्म-हत्या ? हाबड़ा पुलिस की डायरी में यह घटना दर्ज हो गयी। पता नहीं वह किसी निष्कर्ष पर पहुँची या नहीं ; क्योंकि यह एक गरीब की जान थी। लेकिन प्रेमचंद-शताब्दी पर आयोजित साहित्यकारों के विमर्श के दायरे में यह घटना नहीं आ सकी। भविष्य में साहित्य के शोधकर्ताओं का ध्यान भी शायद ऐसी घटनाओं पर कम ही जाय।
न जाने कितने होरी सड़क के किनारे ऐसे ही मरते रहेंगे, कभी मिट्टी ढोते, कभी ठेला-गाड़ी खींचते और हम प्रेमचंद पर बहस करते रहेंगे। क्या हमने प्रेमचंद से कुछ नहीं सीखा ?
क्षमा करें प्रेमचंद ! !

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