लोकप्रिय लोकगायिका शारदा सिन्हा का 72 वर्ष की आयु में निधन, बिहार की संगीत धरोहर को अर्पित श्रद्धांजलि

पटना: बिहार की लोककला और संस्कृति को अपनी आवाज़ से जीवंत करने वाली पद्मभूषण से सम्मानित लोकगायिका शारदा सिन्हा का 72 वर्ष की आयु में कैंसर के कारण निधन हो गया। संगीत जगत में शारदा सिन्हा को “बिहार कोकिला” के नाम से जाना जाता था। उनकी आवाज़ ने खासकर बिहार के पारंपरिक पर्वों को विशेष पहचान दी, जिनमें छठ पूजा प्रमुख है। शारदा सिन्हा का नाम छठ पर्व के साथ इस कदर जुड़ा था कि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ जैसे “केलवा के पात पर” और “सकल जगतारिणी हे छठी माता” हर वर्ष इस पर्व पर पूरे हर्ष और श्रद्धा के साथ सुनी जाती थीं। उनकी आवाज़ ने न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में छठ महापर्व की एक अलग पहचान बनाई।

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संगीत यात्रा की शुरुआत और बिहार के प्रति गौरव

शारदा सिन्हा ने अपने संगीत करियर की शुरुआत 1980 में ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से की। धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, और उन्होंने भोजपुरी, मैथिली, मगही और हिंदी जैसी कई भाषाओं में गाने गाए। बिहार की लोकधुनों और गीतों में उन्होंने अपनी ऐसी छाप छोड़ी कि वह राज्य की संस्कृति का प्रतीक बन गईं। उनकी आवाज़ में ऐसी सादगी और मिठास थी कि लोग उनके गीतों से अपने गांव और संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते थे।

बिहार के प्रति उनकी गहरी निष्ठा ने उन्हें राज्य के प्रतिनिधि के रूप में कई बड़े मंचों पर बुलाया, जिसमें दिल्ली में 2010 में आयोजित “बिहार उत्सव” भी शामिल था। उन्होंने इस उत्सव में बिहार के पारंपरिक संगीत और कला का प्रदर्शन कर अपनी मातृभूमि को गौरवान्वित किया।

बॉलीवुड में भी अनोखी छाप

हालांकि शारदा सिन्हा मुख्य रूप से लोकसंगीत पर ही केंद्रित रहीं, लेकिन उन्होंने बॉलीवुड में भी अपने आवाज़ का जादू बिखेरा। उनकी आवाज़ को फिल्मों में भी खासा पसंद किया गया। “मैने प्यार किया” और “गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2” जैसी फिल्मों में उनके गाए हुए गीतों ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दी। उनकी आवाज़ ने बॉलीवुड में भी क्षेत्रीय संगीत की एक नई पहचान बनाई, जिससे बिहार और उसके संगीत को एक नई ऊंचाई मिली। उनकी आवाज़ में ग्रामीण और पारंपरिक बिहार की मिट्टी की महक थी, जिसने हिंदी फिल्म संगीत में भी एक अलग मिठास जोड़ी।

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पुरस्कार और सम्मान

शारदा सिन्हा की अतुलनीय प्रतिभा और भारतीय संगीत में उनके योगदान को सम्मानित करते हुए भारत सरकार ने उन्हें कई शीर्ष पुरस्कारों से नवाजा। उन्हें 1991 में “पद्मश्री” और 2018 में “पद्मभूषण” से सम्मानित किया गया। ये पुरस्कार केवल उनके संगीत के प्रति उनकी निष्ठा को ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने के उनके प्रयासों को भी स्वीकार करते हैं।

शारदा सिन्हा को बिहार में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उनकी आवाज़ ने लोक संगीत को एक नई पहचान दी और बिहार की संस्कृति को घर-घर तक पहुँचाया। उनके निधन से संगीत जगत में एक अपूरणीय क्षति हुई है। उनकी इस असामयिक विदाई से लोक संगीत प्रेमियों के बीच गहरा शोक व्याप्त है।

संगीत की धरोहर को संभालने का संदेश

शारदा सिन्हा का जीवन और उनकी संगीत यात्रा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने हमेशा अपने संगीत में भारतीय संस्कृति की झलक बनाए रखी। उनका मानना था कि संगीत में ही भारत की आत्मा बसती है। उनकी संगीत यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहे और अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठावान रहे, तो वह विश्व स्तर पर भी अपने राज्य और संस्कृति की पहचान बना सकता है।

उनका निधन छठ महापर्व के अवसर पर हुआ, जिसे वे अपने गीतों के माध्यम से जीवंत करती थीं। इस संयोग ने उनके प्रशंसकों और चाहने वालों के मन में गहरा दर्द छोड़ दिया है। उनका योगदान संगीत जगत और बिहार के लिए अमूल्य रहेगा। उनकी उपस्थिति में मनाए जाने वाले छठ पर्व में अब उनकी मधुर आवाज़ की कमी हमेशा खलेगी।

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उनके जीवन और संगीत ने हमें सिखाया कि अपनी संस्कृति और जड़ों के प्रति गर्व करना और उसे संजोए रखना कितना महत्वपूर्ण है। शारदा सिन्हा ने अपने संगीत के माध्यम से यह संदेश दिया कि भारतीय संगीत की आत्मा लोक धुनों और पारंपरिक गीतों में ही बसती है। उनके जाने से लोक संगीत और बिहार के सांस्कृतिक जगत में एक युग का अंत हो गया है।

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