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पटना- भारतीय संस्कृति में नियिता की एक अलग पहचान रही है. यहाँ के लोक संस्कृति में, पर्व- त्यौहार में, पेंटिंग में, पारंपरिक लोक नृत्य में, इस सांस्कृतिक छवि को देखा जा सकता है. संगीत, कलाकृति एवं लोक कथा और नाटक, इन सब विधा में मिथिला की संस्कृति अव्वल मानी जाती है. मैथिली नाट्य संस्था अरिपन अपने 42 वां स्थापना दिवस समारोह का आयोजन रविवार को विद्यापति भवन में किया जिसका मुख्य केंद्र बना रहा मिथिला के लोक कथा पर आधारित लोक नाटक- “सामा-चकेवा”… जिसके नाटककार है रोहिणी रमण झा और निर्देशक अमलेश आनंद ।


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प्रस्तुत नाटक में भाई-बहन के आगाढ़ प्रेम के साथ-साथ एक सच्चे प्रेमी (सामा चकेवा) का अद्दद्भुत त्याग और समर्पण देखनों को मिला. नाटक को निर्देशित अमलेश आनंद ने किया वहीं नाटककार थे रोहिणी रमण झा. निर्देशक अमलेश आनंद ने प्रस्तुति के सम्बन्ध में बताया कि भाषा से अतिशय प्रेम कारण कलाकारों ने काफी मिहनत किया. भाषा के प्रति प्रेम का एक कलाकार जो पूरक की भूमिका निभा रहे थे वो बैंगलोर से पटना आकर नाटक का रिहर्सल किया और नाटक को एक सफल मंचन का नमूना पेश किया है। मंचित नाटक का कथासार कृष्ण की लाडली बेटी सामा है, जो सभ्य शुशील, धर्मपरायण एवं वृन्दावन के ऋषि मुनि के सेवा में नितदिन लगी रहती है… सामा एक यदुवंशी युवक चास्वक्त्र से प्रेम करती रहती है, वह नितदिन मुनि आश्रम से लौटते समय वृन्दावन में एक अमुख जगह पर मिलती है, जिसे एक दरवारी चूरक देख लेता है. ये बात दरवार पहुंचकर कृष्ण को भरी सभा में इसलिए बताता है क्योंकि वह सामा के साथ अनुचित संबंध बनाना चाहता था न्दजिसके कारण सामा द्वारा तमाचा खाया था. चूरक अपने अपमान का बदला लेने को लेकर सामा के बारे में उल्टा-पुल्टा बात बता कर कृष्ण से चुगली करता है और इसका परिणाम इतना पीड़ादायक होता है कि कृष्ण ग़लतफ़हमी में आ कर सामा को चिरै (चिड़ियाँ) बन जाने का श्राप दे देते हैं… ये बात सुन कर मथुरा के सभी लोग बहुत दुखी होता है, मां जाम्बवती, भाई साम्ब, पति चारुवक्त्र आदि सभी दुखी होता है… लेकिन प्रेम को पाने के लिए साम्ब, चारुवक्त्र जी-जान लगा देता है और घोर तपस्या कर सामा को पुनः मनुष्य रूप में पा लेता है….

इसी आगाढ़ प्रेम के याद में कार्तिक माह के पूर्णिमा को मिथिला में सामा चकेवा खेला जाता है…. नाटक में पूर्वरंग को समावेश करते हुए सूत्रधार अपने अभिनय कौशल को दर्शाते हुए नाटक के प्रत्येक देश और उनमें अभिनीत चरित्र का व्याख्यान करते हुए प्रत्येक चरित्र के आतंरिक भाव को दर्शाते हैं जिससे नाटक की रुचिगरता कायम रहती है
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