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बाबू नन्हकू सिंह, इनके पिता थे काशी के जमीदार, 50 से अधिक की उम्र में भी अविवाहित हैं चिरकुमार, उड़ा दिया गरीबों का शोषण कर कमाई पिता की दौलत को, ना समझा है, ना समझेंगे, धन की कीमत को, घाटों पर गांजा भंग पीते, जुआ खेलते दिख जाएंगे, पता नहीं कब किसकी किस्मत, अपने हाथों लिख जाएंगे, – बिच्छू के डंक जैसी मूंछे, नागपुरी धोती और गंड़ासा, चाल जवानों सी मदमाती, आंखों में डर नहीं जरा सा। कुछ ऐसे ही संवादों से नाटक गुंडा ने लोगों को सोचने पर मजबूर किया। मौका था श्रीराम सेंटर दिल्ली में चल रहा राजधानी पटना की चर्चित नाट्य संस्था प्रवीण सांस्कृतिक नाट्य महोत्सव का जो आयोजन 6 दिसंबर से 10 दिसंबर तक होना है l इस करी में नाट्य महोत्सव के पहले दिन शुक्रवार की शाम जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी का नाट्य रूपांतरण अभिजीत चक्रवर्ती ने किया जबकि निर्देशन विज्येंद्र टांक ने किया।
नाटक में बाबू नन्हकू सिंह एक बड़े जमींदार परिवार की संतान है, लेकिन अपने पिता के निधन के बाद अपनी सब पूंजी गंवा चुका है। प्रकृति से वह साहसी, दयालु, बहादुर और कला-प्रेमी है। उसने ब्रह्मचर्य और स्त्रियों से दूर रहने का व्रत लिया है। वह दुलारी बाई का गाना सुनने जाता है लेकिन कभी उसके कोठे पर नहीं गया। दुलारी राजमाता पन्ना देवी की बचपन की सहेली है और नन्हकू के दिल में राजमाता का विशेष स्थान है। काशी का शासन चेत सिंह के हाथ में है।
नन्हकू सिंह और मौलवी के बीच हो जाती है कहा-सुनी
जनरल वारेन हेस्टिंग्स काशी पर कब्जा करना चाहता है जिसमें कुबड़ा मौलवी उसकी मदद करता है। दुलारी के कोठे के सामने एक दिन नन्हकू सिंह और मौलवी के बीच कहा-सुनी हो जाती है और नन्हकू वहां उसका अपमान कर देता है। मौलवी अब इसका बदला लेना चाहता है। वह अंग्रेजों को काशी पर कब्जा करने के लिए उकसाता है। अंग्रेज राजा चेत सिंह और उनकी मां को गिरफ्तार कर लेते हैं। यह खबर जब नन्हकू को मिलती है तो वह उन्हें मुक्त कराने की ठान लेता हैं और अंग्रेजों से लड़ते हुए मारा जाता है। अंग्रेजों और मौलवी कुबड़ा के साथ बाकी समाज की निगाह में वह एक गुंडा था।
नाटक समापन के तत्पश्चात अतिथि के रूप में मौजूद कोलकाता से आए नाट्य समीक्षक अंशुमन भौमिक ने बिहार के इन कलाकारों को काफी सराहा वही ज्योतिष जोशी ने भी इन्हें भविष्य के ऊर्जावान कलाकार के रूप में संबोधित कियाl
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